प्रचलित मुद्राओं की सूची

२० भाग = १ कौड़ी
२० कौड़ी = आधा दाम
२ आधा दाम = १ रुपया
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राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्रचलित मुद्राओं की सूची प्रचलित मुद्राओं की सूची प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है। राणा कुम्भाकालीन (1433-1468 ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण वि.सं. 1510, 1512, 1523 आदि तिथियों ""श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य ’ ’ , ""श्री एकलिंगस्य प्रसादात ’ ’ और ""श्री ’ ’ के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें "टका’ पुकारा जाता था। यह प्रबाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात शनै: शनै: मुगलकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (1509-1528 ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर ""सुल्तान विन सुल्तान ’ ’ का अभिलेख उत्कीर्ण प्रचलित मुद्राओं की सूची किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर प्रचलित मुद्राओं की सूची आदि की मुद्राओं के संलग्न मुगल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।
परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रही वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का "कलदार’ भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में "पंचमार्क’ मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा "द्रम’ का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष्ठित हो गई। बांसवाड़ा जिले के सरवानियां गांव से 1911 ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में "फदका’ या "फदिया’ मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।
राजस्थान के अन्य प्राचीन राज्यों में जो सिक्के प्राप्त होते हैं वह सभी उत्तर मुगलकाल या उसके पश्चात स्थानीय शासकों द्वारा अपने-अपने नाम से प्रचलित कराए हुए मिलते हैं। इनमें जयपुर अथवा ढुंढ़ाड़ प्रदेश में झाड़शाही रामशाही मुहर मुगल बादशाह के के नाम वाले सिक्को में मुम्मदशाही, प्रतापगढ़ के सलीमशाही बांसवाड़ा के लछमनशाही, बून्दी का हाली, कटारशाही, झालावाड़ का मदनशाही, जैसलमैर में अकेशाही व ताम्र मुद्रा - "डोडिया’ अलवर का रावशाही आदि मुख्य कहे जा सकते हैं।
मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों प्रचलित मुद्राओं की सूची तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।
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पश्चिमी अफ्रीका के देशों ने नयी करेंसी "इको" को क्यों शुरू किया है?
पश्चिमी अफ्रीका के 8 देशों; माली, नाइजर, सेनेगल, बेनिन,टोगो, बुर्किना फासो, गिनी-बसाउ, और आइवरी कोस्ट ने सीएफए फ्रैंक की जगह नई मुद्रा इको को चलाने का फैसला किया है. आइये इस लेख में जानते हैं कि यह निर्णय क्यों लिया गया है?
कहते हैं कि बिना "अर्थ" के कोई तंत्र' नहीं होता है. इसी प्रकार बिना करेंसी को कोई देश भी नहीं होता है. किसी देश की करेंसी उस देश की पहचान होती है.
इसी पहचान को बनाने के लिए पश्चिमी अफ्रीका के 8 देशों; माली, नाइजर, सेनेगल, बेनिन,टोगो, बुर्किना फासो, गिनी-बसाउ, और आइवरी कोस्ट ने फ्रांसीसी उपनिवेश काल से चली आ रही गुलामी को ख़त्म करते हुए फैसला किया है कि वे वर्तमान में प्रचलित मुद्रा ‘सीएफए फ्रैंक’ की जगह अपने देश में एक नई मुद्रा "इको" का इस्तेमाल करेंगे.
इकोवास (ECOWAS) क्या है?
अफ्रीका महाद्वीप को आर्थिक पिछड़ेपन के कारण ‘काला महाद्वीप’ कहा जाता है लेकिन अब यह महाद्वीप अपने नाम को बदलने की राह पर चल पड़ा है. इसी दिशा में कदम उठाते हुए पश्चिम अफ्रीका के 15 देशों ने लागोस की संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद पश्चिम अफ्रीकी राज्यों का आर्थिक समुदाय, इकोवास (ECOWAS) की स्थापना 28 मई 1975 को की थी. इकोवास की स्थापना का मुख्य उद्येश्य पूरे पश्चिम अफ्रीकी क्षेत्र में आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा देना है.
इन 15 देशों में 7 अपनी अपनी करेंसी का उपयोग करते हैं जबकि 8 देश सीएफए फ्रैंक (CFA franc) को एक आम मुद्रा के रूप में साझा करते हैं ताकि क्षेत्र में देशों के बीच आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा दिया जा सके. लेकिन अब इन 8 देशों ने फैसला लिया है कि वे 'सीएफए फ्रैंक' की जगह नयी करेंसी "इको" का इस्तेमाल करेंगे.
'इको' को क्यों शुरू किया जायेगा? (Why ECO launched)
वर्तमान में प्रचलित मुद्रा सीएफए फ्रैंक का फुल फॉर्म है;कॉलोनीज फ्रैंकाइसेस डीअफ्रीक यानी अफ्रीका में फ्रांसीसी उपनिवेश (Colonies Françaises d’Afrique) अर्थात यह नाम सीधे तौर पर बताता है कि ये अफ़्रीकी देश आज भी आर्थिक तौर पर फ्रांस का गुलाम हैं.
सीएफए फ्रैंक करेंसी को 1945 से ही इन देशों में इस्तेमाल किया जाता है इसलिए सीएफए फ्रैंक को इन देशों के आजाद होने के बाद भी पूर्व अफ्रीकी उपनिवेशों में फ्रांस के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता था.
आइवरी कोस्ट के राष्ट्रपति एलास्साने ओउत्तारा ने कहा है कि मुद्रा का नाम बदलने के बाद इन देशों की मुद्रा के सम्बन्ध में फ़्रांस का किसी भी तरह का हस्तक्षेप रुक जायेगा.
इस अवसर पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी उपस्थित थे. उन्होंने कहा कि ‘इको’ की शुरू करने में लगभग 6 महीने लगेंगे और उम्मीद है कि ‘इको’ की शुरुआत 2020 में हो जाएगी.
उम्मीद है कि पश्चिमी अफ्रीका के ये देश अपनी नयी करेंसी 'इको' के साथ विकास के नए प्रतिमान स्थापित करेंगे.
प्रचलित मुद्राओं की सूची
मेवाड़ में मुद्रा का प्रचलन
राजस्थान के अन्य राज्यों की तरह मेवाड़ में भी सिक्के प्रचलन में थे, लेकिन आर्थिक जीवन में सारे लेन- देन सिक्कों के माध्यम से ही नहीं किये जाते थे। दो राज्यों के बीच वाणिज्य व्यापार में नि:संदेह सिक्कों का ही इस्तेमाल होता था, लेकिन साथ- साथ कई स्थितियों में वस्तु- विनिमय से भी काम चला लिया जाता था। राज्य कर्मचारियों सेवकों तथा दासों को वेतन के रुप में अधिकतर कृषि योग्य भूमि, कपड़े तथा अन्य वस्तुएँ दी जाती थी। साथ- साथ नाम मात्र की ही संख्या में सिक्के दिये जाते थे। आंतरिक व्यापार में मुद्राओं के साथ- साथ १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कौड़ियों का भी प्रचलन रहा। कौड़ियों से जुड़ी गणनाओं में एक है-
२० भाग = १ कौड़ी
२० कौड़ी = आधा दाम
२ आधा दाम = १ रुपया
सर जॉन माल्कन के अनुसार
४ कौड़ी = १ गण्डा
३ गण्डा = १ दमड़ी
२ दमड़ी = १ छदाम
२ छदाम = १ रुपया (अधेला)
४ छदाम = १ रुपया = ९६ कौड़ी
१८ वीं सदी के पूर्व यहाँ मुगल शासको के नाम वाली "सिक्का एलची' का प्रचलन था, लेकिन औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का प्रभाव कम हो जाने के कारण अन्य राज्यों की तरह मेवाड़ में भी राज्य के सिक्के ढ़लने लगे। १७७४ ई. में उदयपुर में एक अन्य टकसाल खोली गई। इसी प्रकार भीलवाड़ा की टकसाल १७ वीं शताब्दी के पूर्व से ही स्थानीय वाणिज्य- व्यापार के लिए "भीलवाड़ी सिक्के' ढ़ालती थी। बाद में चित्तौड़गढ़, उदयपुर तथा भीलवाड़ा तीनों स्थानों के टकसालों पर शाहआलम (द्वितीय) का नाम खुदा होता था। अतः यह "आलमशाही' सिक्कों के रुप में प्रसिद्ध हुआ। राणा संग्रामसिंह द्वितीय के काल से इन सिक्कों के स्थान पर कम चाँदी के मेवाड़ी सिक्के का प्रचलन शुरु हो गया। ये सिक्के चित्तौड़ी और उदयपुरी सिक्के कहे गये। आलमशाही सिक्के की कीमत अधिक थी।
१०० आलमशाही सिक्के = १२५ चित्तौड़ी सिक्के
उदयपुरी सिक्के की कीमत चित्तौड़ी से भी कम थी। आंतरिक अशांति, अकाल और मराठा अतिक्रमण के कारण राणा अरिसिंह के काल में चाँदी का उत्पादन कम हो गया। आयात रुक गये। वैसी स्थिति में राज्य- कोषागार में संग्रहित चाँदी से नये सिक्के ढ़ाले गये, जो अरसीशाही सिक्के के नाम से जाने गये। इनका मूल्य था--
१ अरसी शाही सिक्का = १ चित्तौड़ी सिक्का = १ रुपया ४ आना ६ पैसा।
राणा भीम सिंह के काल में मराठे अपनी बकाया राशियों का मूल्य- निर्धारण सालीमशाही सिक्कों के आधार पर करने लगे थे। इनका मूल्य था ---
सालीमशाही १ रुपया = चित्तौड़ी १ रुपया ८ आना
आर्थिक कठिनाई के समाधान के लिए सालीमशाही मूल्य के बराबर मूल्य वाले सिक्के का प्रचलन किया गया, जिन्हें "चांदोड़ी- सिक्के' के रुप में जाना जाता है। उपरोक्त सभी सिक्के चाँदी, तांबा तथा अन्य धातुओं की निश्चित मात्रा को मिलाकर बनाये जाते थे। अनुपात में चाँदी की मात्रा तांबे से बहुत ज्यादा होती थी।
इन सिक्कों के अतिरिक्त त्रिशूलिया, ढ़ीगला तथा भीलाड़ी तोबे के सिक्के भी प्रचलित हुए। १८०५ -१८७० के बीच सलूम्बर जागीर द्वारा "पद्मशाही' ढ़ीगला सिक्का चलाया गया, वहीं भीण्डर जागीर में महाराजा जोरावरसिंह ने "भीण्डरिया' चलाया। इन सिक्कों की मान्यता जागीर लेन- देन तक ही सीमित थी। मराठा- अतिक्रमण काल के "मेहता' प्रधान ने "मेहताशाही' मुद्रा चलाया, जो बड़ी सीमित संख्या में मिलते हैं।
राणा स्वरुप सिंह ने वैज्ञानिक सिक्का ढ़लवाने का प्रयत्न किया। ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बाद नये रुप में स्वरुपशाही स्वर्ण व रजत मुद्राएँ ढ़ाली जाने लगी। जिनका वजन क्रमशः ११६ ग्रेन व १६८ ग्रेन था। १६९ ग्रेन शुद्ध सोने की मुद्रा का उपयोग राज्य- कोष की जमा - पूँजी के रुप में तथा कई शुभ- कार्यों के रुप में होता था। पुनः राज्य कोष में जमा मूल्य की राशि के बराबर चाँदी के सिक्के जारी कर दिये जाते थे। इसी समय में ब्रिटिशों का अनुसरण करते हुए आना, दो आना व आठ आना, जैसे छोटे सिक्के ढ़ाले जाने लगे, जिससे हिसाब- किताब बहुत ही सुविधाजनक हो गया। रुपये- पैसों को चार भागों में बाँटा गया पाव (१/२), आधा (१/२), पूण (१/३) तथा पूरा (१) सांकेतिक अर्थ में इन्हें ।, ।।, ।।। तथा १ लिखा जाता था। पूर्ण इकाई के पश्चात् अंश इकाई लिखने के लिए नाप में s चिन्ह का तथा रुपये - पैसे में o ) चिन्ह का प्रयोग होता था।
ब्रिटिश भारत सरकार के सिक्कों को भी राज्य में वैधानिक मान्यता थी। इन सिक्कों को कल्दार कहा जाता था। मेवाड़ी सिक्कों से इसके मूल्यांतर को बट्टा कहा जाता था। चांदी की मात्रा का निर्धारण इसी बट्टे के आधार पर होता था। उदयपुरी २.५ रुपया को २ रुपये कल्दार के रुप में माना जाता था। १९२८ ई. में नवीन सिक्कों के प्रचलन के बाद तत्कालीन राणा भूपालसिंह ने राज्य में प्रचलित इन प्राचीन सिक्कों के प्रयोग को बंद करवा दिया।
इस प्रकार हम पाते हैं कि यहाँ की आर्थिक व्यवस्था, वस्तु- विनिमय की परंपरा तथा जन- जीवन पर ग्रामीण वातावरण के प्रभाव ने मुद्रा की आवश्यकता को सीमित रखा। वैसे १९ वीं सदी उत्तरार्द्ध में सड़क प्रचलित मुद्राओं की सूची निर्माण, रेल लाइन निर्माण व राजकीय भवन निर्माण तथा राज का परिमापन मुद्रा में होने लगा था, फिर भी अधिकतर- चुकारा एवं वसूली जीन्सों में ही प्रचलित थी। धातुओं से निर्मित इन मुद्राओं के साथ एक समस्या यह भी थी कि संकटकाल में इन मुद्राओं को ही गलाकर शुद्ध धातु को बेचकर लाभ कमाने की कोशिश की जा रही थी। राज्य में महाराणाओं द्वारा वैज्ञानिक सिक्के के प्रचलन में विशेष रुचि नहीं रहने के कारण शान्तिकाल में भी राज्य- कोषागार समृद्ध नहीं रहा, दूसरी तरह भू- उत्पादन द्वारा राज्य- भंडार समृद्ध रहे।
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मोदी सरकार ने बदला मुद्रा का स्वरूप, जारी किए नए-नए सिक्के प्रचलित मुद्राओं की सूची और नोट
कोलकाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सात साल के कार्यकाल में न केवल 500-1000 के प्रचलित नोट बंद किए गए, बल्कि प्रचलित मुद्रा में भी बड़ा बदलाव किया गया। देश में पहले से प्रचलित सभी तरह के एक रुपए के सिक्के से लेकर 2 हजार रुपए के नोट नई डिजाइन और फीचर के साथ जारी किए गए। नई सीरीज के नोट में उन प्राचीन धरोहरों को तवज्जो दी गई, जिन्हें यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। 7 प्रचलित मुद्राओं की सूची मार्च 2019 को 1 से 20 रुपए तक के नए सिक्के जारी कर दिए गए। इसमें 12 कोनों वाला 20 रुपए का सिक्का पहली बार लोगों के हाथ में आया।
7 साल में 44 स्मारक सिक्के-
पीएम मोदी के कार्यकाल में 44 स्मारक सिक्के जारी हुए। इस सूची में पहले स्थान पर दिवंगत पूर्व पीएम जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती व 44वें नंबर पर इस्कॉन संस्थापक प्रभुपाद की 125वीं जयंती पर जारी स्मारक सिक्का है। आजादी के बाद से प्रचलित मुद्राओं की सूची कई तरह के स्मारक सिक्के जारी हुए हैं।
टकसाल करती है सिक्के का निर्माण-
ऐसे स्मारक सिक्के देश के लिए मुद्रा का निर्माण करने वाली संस्था भारत प्रतिभूति मुद्रण तथा मुद्रा निर्माण निगम लिमिटेड बनाती है। यह भारत सरकार की मणिरत्न श्रेणी की कंपनी है। इसी के अधीन टकसाल जिस सिक्के का निर्माण करती है, वो इनको अंकित मूल्य से कई गुना अधिक प्रीमियम कीमतों पर बेचती है। इससे देश का राजस्व बढ़ता है।
पहली बार जारी हुआ संवेदना सिक्का -
देश में पहली बार जलियांवाला बाग नरसंहार की शताब्दी पर 2019 में 100 रुपए का संवेदना सिक्का जारी हुआ। विशेष अवसरों को यादगार बनाने के मकसद से कई तरह के स्मारक सिक्के देश में पहले जारी होते रहे हैं, लेकिन इनमें भी कुछ ऐसे नए मूल्यवर्ग के स्मारक सिक्के पहली बार मोदी के कार्यकाल में ही जारी हुए और इन सभी का अनावरण भी उन्होंने खुद किया। इसमें 125, 200, 250, 350, 500, 550 रुपए के सिक्के शामिल हैं।