परिवेश और प्रवृत्तियाँ

नयी कविता : उद्भव, विकास और प्रवृत्तियाँ
हिंदी साहित्य कोश के अनुसार, नयी कविता मूलत: 1953 ई0 में ‘नये पत्ते’ के प्रकाशन के साथ विकसित हुई और जगदीश गुप्त तथा रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित होनेवाले संकलन ‘नयी कविता (1954) में सर्वप्रथम अपने समस्त संभावित प्रतिमानों के साथ प्रकाश में आयो। इस काल की कविता का ‘नयो कविता’ नाम कई कारणों से पड़ा। प्रथम तो यह कि नयी कविता के कवि विषय-वस्तु और शिल्प की दृष्टि से अपने पूर्ववर्ती कवियों के साथ तो थे, किंतु वे स्वयं यह अनुभव कर रहे थे कि ‘दूसरा सप्तक’ के कवियों द्वारा जहाँ जिस सीमा तक समस्त काव्य-चेतना पहुँच चुकी थी, नयी कविता उससे आगे की ओर बढ़ चुकी थी।
नयी कविता आज की मानव विशिष्टता से उद्भूत उस लघु मानव के लघु परिवेश की अभिव्यक्ति है, जो एक ओर आज की समस्त तिक्तताओं के बीच वह अपने व्यक्त्वि को भी सुरक्षित रखना चाहता है। वह विशाल मानव-प्रवाह में बहने के साथ-साथ असितत्व के यथार्थ को भी स्थापित करना चाहता है, उसके दायित्व का निर्वाह भी करना चाहता है।
नयी कविता की मूल स्थापनाओं में चार तत्व मुख्य हैं। सर्वप्रथम तो यह कि नयी कविता का विश्वास आधुनिकता में है। दूसरे, नयी कविता जिस आधुनिकता को स्वीकार करती है, उसमें वर्जनाओं और कुण्ठाओं की अपेक्षा मुक्त यथार्थ का समर्थन है। तीसरे, इस मुक्त यथार्थ का साक्षात्कार वह विवेक के आधार पर करना अधिक न्यायोचित मानती है। और चौथा, यह कि इन तीनों के साथ-साथ वह क्षण के दायित्व और नितांत समसामयिकता के दायित्व को स्वीकार करती है। आधुनिकता का अर्थ विकृतियों से न होकर उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समर्थन में है, जो विवेचना और विवेक के बल पर हमें प्रत्येक वस्तु के प्रति एक मानवीय दृष्टि, यथार्थ की दृष्टि देती है।
सौंदर्य-बोध की दृष्टि से नयी कविता सौंदर्य को यथार्थ से पृथक वस्तु नहीं मानती। यथार्थ का क्रियाशील तत्व सौंदर्य के आयामों को निर्धारित एवं परिमार्जित करता रहता है। नयी कविता का आग्रह सौंदर्य के प्रति नहीं है, जो मात्र अलौकिक या अदृश्य के संयम-नियम से शासित होकर व्यक्त होता है। नयी कविता का सौंदर्यवाद बौद्धिक अनुभूति और बुद्धिवाद को भी स्वीकार करता है। परिवेश के महत्वपूर्ण शायित्व के प्रति नयी कविता का दृष्टिकोण दो विचारों से प्रभावित है। सर्वप्रथम तो नितांत समसामयिकता की दृष्टि से और दूसरे अस्तित्वपूर्ण क्षण के प्रति जागरूक चेतना की अनुभूति और उसको अभिव्यक्ति को दृष्टि से। समसामयिकता के दायित्व का निर्वाह करने के लिए यह आवश्यक है कि कवि के अंदर आधुनिकता के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टि के साथ-साथ लघु मानव के लघु परिवेश की आस्था भी हो।
नयी कविता का आग्रह जिस विशेष तत्व पर है, वह उस मानव-व्यक्तित्व की स्थापना और उसकी उपयोगिता से विकसित होता है, जो समस्त विदुपताओं और कटुताओं के बावजूद मनुष्य को उसको मूल मर्यादा के प्रति, निजत्व और अस्तित्व के प्रति जागरूक रखना चाहता है। छायावाद की भांति इसमें वस्तु स्थिति से पलायन की प्रवृत्ति न होन के नाते यह आज की मानसिक स्थिति को अधिक प्रतिबिंवित करती है। ठीक उसी प्रकार प्रगतिवाद के मत प्रधान काव्य की दीन और संकीर्ण मनोवृत्ति से पृथक् वह यथार्थ की गतिशीलता को अंगीकार करके दिग्भ्रमित नहीं होती। यही वजह है कि वह विकासमान रही है।
नयी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ पाँच प्रकारों में विभाजित की जा सकती है। पहली प्रवृत्ति यथार्थवादी अहंवाद की है, जिसमें यथार्थ को स्वीकृति के साथ-साथ कवि अपने अस्तित्व को उस यथार्थ का अंश मानकर उसके प्रति जागरूक अभिव्यक्तियाँ देता है। इसके अंतर्गत अज्ञेय, मुक्तिबोध, कुंवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना इत्यादि की रचनाएं आती हैं। दूसरी प्रवृत्ति व्यक्ति अभिव्यक्ति की सवच्छंद प्रवृत्ति है, जिसमें आत्मानुभूति को समस्त संवेदना को बिना किसी आग्रह के रखने की चेष्टा की जातो है। इस भाव के अंतर्गत प्रभाकर माचवे और मदन वात्साययन आते हैं। तोसरी प्रवृत्ति आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक दृष्टि की है, जिसमें वर्तमान कटुताओं और विषमताओं के प्रति कवि की व्यंग्यपूर्ण भावनाएं व्यक्त हुई हैं। इस परिवेश और प्रवृत्तियाँ प्रवृत्ति के अंतर्गत लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र और विजयदेव
नारायण साही की रचनाएं आती हैं। चौथी प्रवृत्ति ऐसे कवियों की है जिनमें रस और रोमांच के साथ-साथ आधुनिकता और समसामयिकता का प्रतिनिधित्व संपूर्ण रूप में व्यक्त हुआ है। गिरिजा कुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन और धर्मवीर भारती की कविताओं में इस प्रवृत्ति को तलाशा जा सकता है। पाँचवीं प्रवृत्ति उस चित्रमयता और अनुशासित शिल्प की भी है, जो आधुनिकता के संदर्भ में होते हुए भी समस्त यथार्थ को केवल बिंबात्मक रूप में ग्रहण करता है। इसके अंतर्गत जगदीश गुप्त, केदारनाथ सिंह और शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएं प्रस्तुत होती हैं।
आधुनिककालीन हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास/छायावाद : परिवेश और प्रवृत्तियाँ
बीसवीं सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में हिंदी कविता में एक नयी प्रवृत्ति का उदय हो रहा था। यह प्रवृत्ति पूर्व की काव्य-प्रवृत्तियों के साथ-साथ द्विवेदीयुगीन वस्तुवादी-नैतिकतावादी दृष्टि से भी भिन्न थी। इसी उदित होती नयी प्रवृत्ति, जिसे स्वच्छंदतावाद (Romanticism) कहा जाता है, ने छायावाद के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) ने साम्राज्यवाद के समूचे ढाँचे पर ज़बरदस्त प्रहार किया। 1917 में रूसी क्रांति ने भी संपूर्ण विश्व पर अपना प्रभाव जमाया। भारत में भी इसी दौर में जन आंदोलनों का सूत्रपात हुआ। इससे पहले तक भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असंतोष केवल चिट्ठियों, आवेदनों और लेखों से ही अभिव्यक्त हो रहा था। 1915-16 के दौरान गांधी जी के भारत आगमन के साथ कांग्रेस का आंदोलन शहरी शिक्षित मध्यवर्ग से निकलकर गरीब किसानों और मज़दूरों के बीच भी फैल गया। इसके साथ ही यह भावना प्रबल होने लगी कि केवल स्वतंत्रता और मुक्ति ही एकमात्र लक्ष्य हो परिवेश और प्रवृत्तियाँ सकता है। दासता से मुक्ति की आकांक्षा इतनी प्रबल हो रही थी कि यह केवल राजनीति के क्षेत्र तक सीमित नहीं थी बल्कि प्राचीन रूढ़ियों, मान्यताओं और रीतिरिवाजों से मुक्ति की कामना के रूप में भी उभर रही थी।
पुनर्जागरण से प्रेरित यूरोप के स्वच्छंदतावादी साहित्यिक आंदोलन ने भारतीय मध्यवर्ग की सोच और संवेदना को नया आधार प्रदान किया। मुक्ति की जैसी इच्छा और छटपटाहट भारत का मध्यवर्ग इस समय महसूस कर रहा था, कुछ वैसी ही भावना उस समय के यूरोपीय समाज में मौजूद थी। इसलिए यह स्वाभाविक था कि नये कवि उनके काव्य से प्रेरणा लेते। कीट्स, बायरन, वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली आदि रोमैंटिक कवियों के काव्य और उनके लेखन ने उन्हें सोचने-समझने का नया आयाम प्रदान किया।
छायावाद की प्रवृत्तियों को समझने के लिए तत्कालीन परिवेश और सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि की चर्चा आवश्यक है। हालाँकि नामवर सिंह का मानना है कि "आरंभ में सामाजिक पृष्ठभूमि देकर फिर किसी काव्य-प्रवृत्ति पर विचार करने से कोई बात नहीं बनती। इससे पुस्तक, पाठक और लेखक के साथ ही उस कविता पर भी भार बढ़ता है। सामाजिक सत्य कविता से खोज निकालने की चीज है, ऊपर से आरोपित करने की नहीं।" [1] छायावादी काव्य-प्रवृत्तियों पर विचार करने के साथ ही हम तत्कालीन परिवेश को भी बेहतर ढंग से समझ पाएँगे।
छायावादी काव्य समाज में व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व की कल्पना करता है। छायावादी युग में पहली बार कवि ने स्वतंत्र होकर स्वयं के जीवन की घटनाओं का वर्णन किया। "जैसे ही कोई पाठक छायावाद की सीमा में प्रवेश करता है, ये कविताएँ तुरंत अपनी आत्मीयता से उसे आकृष्ट कर लेती हैं। यहाँ वह देखता है कि कवि निर्वैयक्तिकता का सारा आवरण उतारकर एक आत्मीय की भाँति अत्यंत निजी ढंग से बातें कर रहा है।" [2] इस वैयक्तिकता में कवि सीधे-सीधे 'मैं शैली' में बात करता है और पाठक को उसके भावों के साथ तादात्म्य अनुभव करने में सुगमता होती है। निराला घोषित करते हैं -
"मैंने 'मैं'-शैली अपनाई
देखा दुखी एक निज भाई
दुःख की छाया पड़ी हृदय में मेरे
झट उमड़ वेदना आई।"
महादेवी वर्मा ने माना परिवेश और प्रवृत्तियाँ कि "आज का रचनाकार अपनी हर साँस का इतिहास कह देना चाहता है।" निराला और महादेवी की कविताएँ इसी वैयक्तिकता की चेतना को स्पष्ट करती हैं -
"दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।" (निराला)
"मैं नीर भरी दुःख की बदली।" (महादेवी वर्मा)
व्यक्ति में वैयक्तिक चेतना जाग चुकी थी किन्तु समाज में इतनी उदारता नहीं आई थी कि वह सहजता से वैयक्तिक स्वातंत्र्य को स्वीकार कर लेता। इसीलिए समाज से टकराहट के परिणामस्वरूप व्यक्ति में निराशा व वेदना की भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। इस निराशा को आलोचक पलायनवाद भी कह देते हैं। प्रसाद कहते हैं –– 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे।' हालाँकि इस कविता में प्रसाद की वैयक्तिक चेतना 'सृजन' और 'अमर जागरण' की आकांक्षा से युक्त है न कि पलायनवाद से ––
"श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी रे!" –– ('मेरे नाविक' कविता से.)
आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा वस्तुतः आत्म-प्रसार की आकांक्षा थी। कवियों के समक्ष ज्ञान-विज्ञान के नए आलोक में संसार का विराट रूप सामने आया। "'विराट' की आकांक्षा में अपनी रूढ़िगत सीमाओं को तोड़ने का कितना साहस था, यह इसी से मालूम होता है कि छायावाद-युग ने निर्झर अथवा प्रपात पर जितनी कविताएँ लिखीं, उतनी शायद ही किसी और युग में लिखी गई होंगी। निर्झर छायावादी स्वच्छंदता का प्रतीक बन गया; वह शिला-खंडों के गतिरोध को तोड़ता हुआ, घन-बन-अंधकार को पार करके वेग से अनंत जल-निधि की ओर चल देता है।" [3]
प्रकृति-प्रेम
छायावाद में प्रकृति इस तरह समाहित है कि उसे अलग करना संभव नहीं है। छायावादी सौंदर्य प्रकृति के अभाव में प्राणहीन हो जाता है। प्रकृति का आलंबन, उद्दीपन, मानवीकरण, दूती, रहस्यवादी रूप में विशद चित्रण हुआ है। प्रसाद के यहाँ प्रकृति का मानवीकरण द्रष्टव्य है ––
"बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा-घट ऊषा नागरी!
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी।"
प्रकृति के समान ही नारी को भी छायावादी काव्य में अभूतपूर्व प्रधानता मिली। यहाँ तक कि उसे स्त्रैण काव्य तक कह दिया गया। द्विवेदीयुगीन कविताओं में नारी के प्रति दया या सहानुभूति का भाव अधिक है, यथोचित सम्मान का नहीं।
राष्ट्रीय जागरण का काव्य
छायावाद के संबंध में नामवर सिंह ने माना है कि - "व्यक्तित्व की स्वाधीनता, प्रकृति का साहचर्य और स्वतंत्र नारी की शक्ति का सहयोग पाकर आधुनिक पुरुष व्यापक सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगा। वह केवल प्रेम और सौंदर्य का ही बंदी नहीं रहा। उसने केवल प्रेम-राज्य में ही रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया; बल्कि जीवन के जिस क्षेत्र में उसे विषमता, पराधीनता और अन्याय दिखाई पड़ा, वहीं उसने संघर्ष आरंभ कर दिया। इस व्यापक राष्ट्रीय जागरण का प्रभाव छायावाद की कविता पर भी पड़ा।" [4] नामवर सिंह स्पष्ट करते हैं कि पराधीन समाज में राष्ट्रीयता की भावना का उदय 'पुनरुत्थान-भावना' से होता है। [5] जयशंकर प्रसाद ने 'स्कंदगुप्त' के गीत 'हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार' के माध्यम से इसी पुनरुत्थान-भावना की अभिव्यक्ति की है। भारतीय सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि का उल्लेख करते हुए वे अंततः कहते हैं -
"वही है रक्त, वही है देह, वही साहस है, वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति वही हम दिव्य आर्य संतान।
जिएँ तो सदा, उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।"
छायावादी काव्य की केंद्रीय चेतना स्वतंत्रता की आकांक्षा है। यहाँ स्वतंत्रता केवल एक राजनीतिक माँग नहीं है बल्कि जीवन-मूल्य है। यह स्वतंत्रता रूढ़ियों से, धर्म से, समाज से है। पंत ने 'वीणा' कविता में मानव मुक्ति एवं विश्व मुक्ति की कल्पना की है-
प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने यह गाना?
खुले पलक, फैली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि डोले मधु-बाल।
स्पंदन, कंपन, नव जीवन फिर सीखा जग ने अपनाना।
प्रसाद का मानना है कि कल्पना मानव जीवन का प्राण है। छायावादी कवियों ने रूढ़िगत मान्यताओं का तर्कों के आधार पर विरोध किया तथा ख़ुद अपने सत्य खोजने का प्रयास किया। सत्य के परिवेश और प्रवृत्तियाँ परिवेश और प्रवृत्तियाँ प्रति जिज्ञासा ने इन्हें कल्पनाशील बनाया। जब शास्त्रों में उत्तर नहीं मिलता तो कल्पना में उन्हें ढूँढा जाता है। इसीलिए ये कवि कल्पना की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं। प्रसाद कहते हैं ––
"आह! कल्पना का सुंदर यह जगत मधुर कितना होता!
सुख-स्वप्नों का दल छाया में पुलकित हो जगता-सोता।" –– आशा सर्ग, 'कामायनी'
परिवेश और प्रवृत्तियाँ
प्रयोगवादी कविताओं ने आगे चलकर नई कविताओं का रूप ले लिया। नवीन कविताओं के प्रमुख विषय चमत्कार और जीवन यथार्थ थे। नई कविताएँ परिस्थितियों की उपज हैं। इनका लेखन स्वतंत्रता के बाद किया गया था। नवीन भावबोध, नए मूल्य, शिल्प विधान आदि नई कविताओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद पहली बार मनुष्य की असहायता, विवशता और निरूपायता सामने आई। साथ ही मनुष्य ने अपने अस्तित्व का संकट भी अनुभव किया। हिंदी के ऐतिहासिक युग नई कविता में मानव का दार्शनिक रूप वादों से परे है और एकांत में प्रगट होता है। नई कविता युग एक प्रतिष्ठित युग है। साथ ही यह प्रत्येक परिस्थिति में अपने अस्तित्व को बनाए रखने वाला युग है। नई कविताओं में लघु मानव और उसके संघर्ष का अनूठा वर्णन किया गया है। नई कविता के कवि दो परिवेशों को लेकर लिखने वाले कवि हैं। ग्रामीण और शहरी दोनों परिवेशों का नई कविताओं में वर्णन किया गया है। इसके अलावा कुंठा, असमानता, घुटन और कुरूपता का वर्णन किया गया है। गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती, शमशेर बहादुर सिंह आदि शहरी परिवेश के कवि हैं। इनके अलावा भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, नागार्जुन आदि ग्रामीण परिवेश के कवि हैं। नई कविता को वस्तु की तुलना में शिल्प की नवीनता ने ज्यादा गंभीर चुनौती दी है। नए शिल्प अपनाना तथा परंपरागत शिल्प को तोड़ना कठिन कार्य था। इसलिए नई कविता युग में छोटी-छोटी कविताओं की प्रचुरता रही। प्रभावशीलता की दृष्टि से ये छोटी-छोटी रचनाएँ भी बड़े-बड़े वृत्तांतों को सफलता के साथ वर्णित करती हैं। नई कविता में व्यंग्यों की प्रधानता रही है। इसका कारण तत्कालीन समाज में घुटन, आक्रोश और नैराश्य के भावों का स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहना है।
नई कविता की विशेषताएँ
नई कविता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–
1. लघु मानव वाद की प्रधानता– नई कविता में मानव जीवन को विशेष महत्व दिया गया है। साथ ही उसे अर्थपूर्ण दृष्टि प्रदान की गयी है।
2. क्षणवाद की प्रधानता– नई कविता में मनुष्य के जीवन के प्रत्येक क्षण को महत्व दिया गया है। साथ ही मनुष्य की एक-एक अनुभूति को कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।
3. प्रयोगों में नवीनता– नई कविताओं में पुराने भावों और शिल्प विधानों के स्थान पर नवीन भावों और शिल्प विधानों को प्रस्तुत किया गया है।
4. मानव की अनुभूतियों का चित्रण– कविताओं में मानव और समाज की अनुभूतियों का सच्चाई के साथ वर्णन किया गया है।
5. बिम्बों का प्रयोग– नई कविता के कवियों ने अपनी रचनाओं में नूतन बिम्बों का प्रयोग किया है।
6. कुंठा, संत्रास और मृत्युबोध की प्रधानता– नवीन कविताओं में मानवमन में व्याप्त कुंठाओं का चित्रण किया गया है। इसके अलावा जीवन परिवेश और प्रवृत्तियाँ के संत्रास और मृत्युबोध का भी मनोवैज्ञानिक ढंग से अंकन किया गया है।
7. व्यंग्य प्रधान कविताएँ– नई कविताओं के युग में कवियों ने अपनी रचनाओं में मानव जीवन की विसंगतियों, विकृतियों और अनैतिकतावादी मान्यताओं पर व्यंग्यों के माध्यम से करारे प्रहार किये हैं।
कवि एवं उनकी रचनाएँ
नई कविता के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं–
1. भवानी प्रसाद मिश्र– सन्नाटा, गीत फरोश, चकित है दुःख
2. शमशेर बहादुर सिंह– इतने पास अपने, बात बोलेगी हम नहीं, काल तुझ से होड़ है मेरी
3. कुंवर नारायण– आमने-सामने, कोई दूसरा नहीं, चक्रव्यूह
4. दुष्यंत कुमार– सूर्य का स्वागत, साये में धूप, आवाजों के घेरे
5. जगदीश गुप्त– नाव के पाँव, शब्द दंश, बोधि वृक्ष, शम्बूक
6. रघुवीर सहाय– हँसो-हँसो जल्दी हँसो, आत्महत्या के विरुद्ध
7. श्रीकांत वर्मा– दिनारम्भ, भटका मेघ, मगध, माया दर्पण
8. नरेश मेहता– वनपाँखी सुनो, बोलने दो चीड़ को, उत्सव।
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धन्यवाद।
R F Temre
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R F Temre
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बच्चों को चाहिए ढेर सारी किताबें
बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं। वहीं जिज्ञासा का सीधा संबंध कौतुहल से है। उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है। भौतिक सुखों व बाजारवाद की बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल-सा माहौल पैदा हो गया है। ऐसे में बच्चों को दुनिया की रोचक जानकारी सही तरीके से देना राहत भरा कदम होता है। पुस्तकें इसका सहज, सर्वसुलभ और सटीक माध्यम हैं। भले ही शहरी बच्चों का एक वर्ग इंटरनेट व अन्य माध्यमों से ज्ञानवान बन रहा है, पर आज भी देश के आम बच्चे को ज्ञान, मनोरंजन, और भावी चुनौतियों का मुकाबला करने के काबिल बनाने के लिए जरूरी पुस्तकों की बेहद कमी है।
आज बच्चे बड़े अवश्य हो रहे हैं, पर अनुभव जगत के नाम पर एक बड़े शून्य के बीच। पूरे देश के बच्चों से जरा चित्र बनाने को कहें। तीन-चौथाई बच्चे पहाड़, नदी, झोपड़ी और उगता सूरज उकेर देंगे। बाकी बच्चे टीवी पर दिखने वाले डिज्नी चैनल के कुछ चरित्रों के चित्र बना देंगे। यह बात साक्षी है कि स्पर्श, ध्वनि, दृष्टि के बुनियादी अनुभवों की कमी, बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को किस हद तक खोखला बना रही है।
1857 की क्रांति के वक्त अफगानिस्तान से लेकर कन्याकुमारी तक की साक्षरता दर महज एक फीसदी थी। आजादी के समय भी हमारी साक्षरता दर दयनीय ही थी। आज हमारे यहां शिक्षा भी एक क्रांति के रूप में आई है। यह हम सभी मानेंगे कि अब गांव में स्कूल खुलना उतना ही बड़ा विकास का काम माना जाता है, जितना सड़क बनना या अन्य कोई काम। पर बच्चों पर स्कूल में पढ़ाई का बोझ बढ़ता जा रहा है- ऐसी पढ़ाई का बोझ, जिसका बच्चों की जिंदगी, भाषा और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है। ऐसी पढ़ाई समाज के क्षय को रोक नहीं सकती, उसे बढ़ावा ही दे सकती है।
भारत में बाल साहित्य की पुस्तकों का इतिहास दो सौ वर्षों का परिवेश और प्रवृत्तियाँ नहीं हुआ है। वैसे 14वीं सदी में अमीर खुसरो ने पहेलियां लिखी थीं, जिनका लक्षित वर्ग बच्चों को माना गया था। 1817 में कोलकाता में कुछ ईसाई मिशनरियों ने बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया था। राजा शिव प्रसाद सिंह सितारे हिंद ने 1867 में बच्चों के लिए कहानियां लिखीं और 1876 में लड़कों के लिए कहानियां नाम से अपने संग्रह प्रकाशित करवाए थे। कहा जा सकता है कि आधुनिक मुद्रण में बच्चों की हिंदी में पहली किताबें वही थीं।
शुरुआती दिनों में हमारा बाल साहित्य पंचतंत्र, हितोपदेष, जातक, पौराणिक व दंतकथाओं तक ही सीमित रहा। कहा गया कि बाजार उभार में है, सो प्रकाशक ऐसा सुरक्षित रास्ता पकड़ना चाहते हैं जहां उन्हें घाटा न लगे। इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया के दरवाजे एक-दूसरे के लिए खोल दिए। टीवी, इंटरनेट क्रांति ने सूचना का प्रवाह इतना तीव्र कर दिया कि भारत जैसे देश की बाल परिवेश और प्रवृत्तियाँ पीढ़ी लड़खड़ा-सी गई, पर उसका एक फायदा बाल पुस्तकों को जरूर हुआ- उसकी विषयवस्तु और गुणवत्ता आदि में सुधार आया।
मगर यह विडंबना है कि हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखने से बचते हैं, जबकि मराठी, परिवेश और प्रवृत्तियाँ बांग्ला में ऐसा नहीं है। आज जरूरी है कि बच्चों की पठन अभिरुचि में बदलाव, उनकी अपेक्षाओं, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य आदि को ध्यान में रखकर आंचलिक क्षेत्रों तक शोध हों, लोगों को अंग्रेजी ही नहीं, भारत की अन्य भाषाओं में बाल साहित्य पर हो रहे काम की जानकारी मिले तथा हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखें।
बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं। वहीं जिज्ञासा का सीधा संबंध कौतुहल से है। उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है। भौतिक सुखों व बाजारवाद की बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल-सा माहौल पैदा हो गया है। ऐसे में बच्चों को दुनिया की रोचक जानकारी सही तरीके से देना राहत भरा कदम होता है। पुस्तकें इसका सहज, सर्वसुलभ और सटीक माध्यम हैं। भले ही शहरी बच्चों का एक वर्ग इंटरनेट व अन्य माध्यमों से ज्ञानवान बन रहा है, पर आज भी देश के आम बच्चे को ज्ञान, मनोरंजन, और भावी चुनौतियों का मुकाबला करने के काबिल बनाने के लिए जरूरी पुस्तकों की बेहद कमी है।
आज बच्चे बड़े अवश्य हो रहे हैं, पर अनुभव जगत के नाम पर एक बड़े शून्य के बीच। पूरे देश के बच्चों से जरा चित्र बनाने को कहें। तीन-चौथाई बच्चे परिवेश और प्रवृत्तियाँ पहाड़, नदी, झोपड़ी और उगता सूरज उकेर देंगे। बाकी बच्चे टीवी पर दिखने वाले डिज्नी चैनल के कुछ चरित्रों के चित्र बना देंगे। यह बात साक्षी है कि स्पर्श, ध्वनि, दृष्टि के बुनियादी अनुभवों की कमी, बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को किस हद तक खोखला बना रही है।
1857 की क्रांति के वक्त अफगानिस्तान से लेकर कन्याकुमारी तक की साक्षरता दर महज एक फीसदी थी। आजादी के समय भी हमारी साक्षरता दर दयनीय ही थी। आज हमारे यहां शिक्षा भी एक क्रांति के रूप में आई है। यह हम सभी मानेंगे कि अब गांव में स्कूल खुलना उतना ही बड़ा विकास का काम माना जाता है, जितना सड़क बनना या अन्य कोई परिवेश और प्रवृत्तियाँ काम। पर बच्चों पर स्कूल में पढ़ाई का बोझ बढ़ता जा रहा है- ऐसी पढ़ाई का बोझ, जिसका बच्चों की जिंदगी, भाषा और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है। ऐसी पढ़ाई समाज के क्षय को रोक नहीं सकती, उसे बढ़ावा ही दे सकती है।
भारत में बाल साहित्य की पुस्तकों का इतिहास दो सौ वर्षों का नहीं हुआ है। वैसे 14वीं सदी में अमीर खुसरो ने पहेलियां लिखी थीं, जिनका लक्षित वर्ग बच्चों को माना गया था। 1817 में कोलकाता में कुछ ईसाई मिशनरियों ने बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया था। राजा शिव प्रसाद सिंह सितारे हिंद ने 1867 में बच्चों के लिए कहानियां लिखीं और 1876 में लड़कों के लिए कहानियां नाम से अपने संग्रह प्रकाशित करवाए थे। कहा जा सकता है कि आधुनिक मुद्रण में बच्चों की हिंदी में पहली किताबें वही थीं।
शुरुआती दिनों में हमारा बाल साहित्य पंचतंत्र, हितोपदेष, जातक, पौराणिक व दंतकथाओं तक ही सीमित रहा। कहा गया कि बाजार उभार में है, सो प्रकाशक ऐसा सुरक्षित रास्ता पकड़ना चाहते हैं जहां उन्हें घाटा न लगे। इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया के दरवाजे एक-दूसरे के लिए खोल दिए। टीवी, इंटरनेट क्रांति ने सूचना का प्रवाह इतना तीव्र कर दिया कि भारत जैसे देश की बाल पीढ़ी लड़खड़ा-सी गई, पर उसका एक फायदा बाल पुस्तकों को जरूर हुआ- उसकी विषयवस्तु और गुणवत्ता आदि में सुधार आया।
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